Saturday, June 12, 2021

वीरों के वीर "राणा सांगा"




मेवाड़ के वीर सपूत महाराणा संग्रामसिंह जिन्हें "राणा सांगा"के नाम से जाना जाता है उनकी जीवन गाथा को "आल्हा छंद"में प्रस्तुत करने का तुच्छ प्रयास किया है।अपनी राय एवं प्रतिक्रिया अवश्य दें।

दोहा-

सबका वंदन मैं करुँ,सबको करूँ प्रणाम।

गुरुजन के आशीष से,सँवरे बिगड़े काम।।


राणा कुल की शान बढ़ायी,

वीर प्रतापी थे संग्राम।

रायमल पितु नाम था न्यारा,

मेवाड़ सदा से निज धाम।।


मातृभूमि रज हिय को प्यारी,

चंदन बनके शोभित भाल।

उसकी रक्षा करने के हित,

बनकर रहते जैसे ढ़ाल।।


छोटे सुत वे थे राणा के,

गुण उनके पहचाने तात।

सत्ता सौंपी वीर लला को

समझी सारी उनकी बात।।


अग्रज बैरी बनकर बैठे,

प्राणों पर करते आघात।

शौर्य बसा रग-रग में उनके,

कैसे खाते फिर वे मात।।


सिसोदिया कुलभूषण राणा,

सांगा जिनका नाम महान।

स्वर्णाक्षर में शोभित जग में,

चहुँदिश करती इनका गान।।


सूरज बनकर चमके जग में,

और बढ़ाया सबका मान।

रजपूती मर्यादा रक्षक,

नींव रखी सुख देकर दान।।


खंडित राज्य-प्रजा के मन में,

अखंडता का देकर ज्ञान।

राज्य बढ़ाया सांगा ने फिर,

जग को होता इसका भान।।


धीर पराक्रम और चतुरता,

बाहुबल का कर उपयोग।

अरिदल उनसे थर-थर कांँपे,

भय का लगता उनको रोग।।


शोभित है मेवाड़ी धरती, 

वीरों से पाकर संस्कार ।

बलिदानों की गाथा गाती,

जिसमें जन्मे रत्न हजार।।


अपने तन की भूलें सुध-बुध,

कर्तव्यों का रखते ध्यान।

अरि दल आँख उठाकर देखे,

बन जाते थे वे चट्टान।।


वीरों के पथ में बिछे,संकट बनके शूल।

सत्ता पद को लोभ बढ़े,रिश्ते बनते धूल।।


अग्रज पृथ्वीराज चिढ़े थे,

क्योंकर ये बनता सम्राट।

हक मेरा है गद्दी ऊपर,

कबसे देखूं इसकी बाट।।


हाथ कटारी उनके थी फिर,

साँगा पर करते थे वार।

एक नयन को फोड़ दिया था,

बैरी निकला वो खूँखार।।


ज्योतिष कहता साँगा होगा,

राजा गद्दी का हकदार।

जयमल पृथ्वी उस पर करते,

तलवारों से कितने वार।।


राठौरी शासक बीदा ने,

साँगा का रक्खा था मान।

प्राण गँवाए अपने उसने,

रक्षा का था उसको ध्यान।।


करमचंद ने शरणागत को,

दिया सुरक्षा का वरदान।

छुपकर रहते राणा साँगा,

संकट में थी उनकी जान।।


पृथ्वी जयमल का अंत हुआ,

शासक निकले वे कमजोर।

जैसी करनी वैसी भरनी

रात गई अब आती भोर।


पंद्रह सौ नौ में भाग्य जगे

साँगा थामे सत्ता डोर।

हर्ष मनाते सब मेवाड़ी,

भीग उठे नयनों के कोर।


स्वाधीनता प्रिय बनी उनकी

करते कोशिश वे पुरजोर।

मातृभूमि की रक्षा होगी,

हिंदूपत का आया दौर।।


बाला वीर यहाँ की जग में,

अपनी उनकी है पहचान।

त्याग बसा रग-रग में उनके,

बोल रहे गढ़ के पाषाण।। 


राज करें राणा नरबध्दू,

बूँदी उनका था निज धाम।

जन्म लिया सुंदर तनया ने,

कर्णावती सुता का नाम।।


मात-पिता हर्षित होते थे,

बिटिया उनकी थी गुणवान।

तेज भरा मुखमंडल दीपित,

हाड़ा कुल का थी वो मान।।


योग्य मिले वर इस चिंता में,

व्याकुल होते उसके तात।

पाकर राणा का संदेशा,

हिय सर फूल उठे जलजात।।


मित्र बने बूँदी मेवाड़ी,

मन राणा के थी यह बात।

संधि करें संबंध बनाएँ,

फिर देवें अरिदल को मात।।


कर्णावती रूपसी बाला,

करते सब उसका सम्मान।

बनी परिणिता राणा जी की,

रखती थी क्षत्राणी आन।।


झूम उठा मेवाड़ खुशी से,

नाच उठा था गढ़ चित्तौड़।

ड्योढ़ी पर पग रक्खे रानी,

एक कथा लिखती बेजोड़।


राणा की बनकर परछाँई,

राजनीति की लेती थाह।

वीरों के हे वीर सुनो तुम

पूरी करना अपनी चाह।।


काल सदा कब सम रहता है,

दिन बीते तो आती रात

साँगा युद्ध करें अरि दल से

बिन बादल ज्यों हो बरसात।।


धर्म ध्वजा थामी कर्मा ने,

कर्म बना जीवन का सार।

लिखती जाती लेख अनोखे,

कर्तव्यों का लेकर भार।।


साँगा एक ध्वजा के नीचे,

करें संगठन का विस्तार।

मातृभूमि प्रति प्रेम जगाते,

देख समय की पैनी धार।।


लोधी खिलजी बाबर मिलकर,
ललचाए सब गिद्ध समान।
मोहक मेवाड़ी धरती पर,
राज करें बस इसका ध्यान।।

देख रही क्षत्राणी कर्मा,
साँगा के पुरजोर प्रयास।
आन हमारी सबसे ऊपर,
प्राण मिटे पूरी हो आस।।

दो -दो फूल खिले गढ़ आँगन,
विक्रम और उदय जिन नाम।
साहस शौर्य पराक्रम धारो,
कर्मा शिक्षा दे निज धाम।।

सामंतों सरदारों में अब,
खूब जमी कर्मा की धाक।
सोए भाव जगे फिर मन के,
सबको प्यारी अपनी नाक।।

सूई नोंक बराबर धरती,
लेकर देखे देंगे चीर।
आँख उठाकर देखे कोई,
रखने वाले हम न धीर।।

चहुँदिश मान बढ़ा मेवाड़ी,
गाते चारण उनका गान।
वीर पताका फहराते नभ,
शीश कटे रखते सम्मान।।

राणा हिंदूपत मन जागी,
ऐसी ज्वाला ऐसी प्यास।
हिंदूछत्र बने निज धरती,
अरिदल की टूटे हर आस।।

बागड मालव मारवाड़ को,
छलबल से बंधन में बाँध।
खेले फिर वे खेल निराले,
शेर छुपा कब बैठा माँद।।

गूँज उठे जयकारे जग में
साँगा शासक एक महान।
घाव असी ले तन पर डोले,
फूँक रहा था मृत में जान।।

शौर्य क्षमा गुण कार्य कुशलता,
साँगा के आभूषण नेक।
गागरोन का युद्ध लड़ा जब,
जीता मालव संग विवेक।

खिलजी को फिर धूल चटायी,
पूर्ण किया अपना सब काज।
दान क्षमा का देकर उसने
सौंपा वापस मालव राज।

बाबर दिल्ली जीत चुका जब,
साँगा खटका उसकी आँख।
मन पंछी विचलित सा रहता,
कब दाबूँ मैं इसको काँख।।

महिमा मंडन करने वाले,
बोल रहे मिश्री से बोल।
मन में विषधर थे फुंकारे
स्वार्थ रहा था उनको तोल।।

अच्छे पन का ढोंग रचाकर,
जीत लिया उनका विश्वास।
मन ही मन में ढाह जलाती,
जैसे जलती सूखी घास।।

शासन सत्ता लोभ बढ़ाए,
बदले मानव का व्यवहार।
कायर भ्रष्ट बने वह पल में
गिरगिट सा बदले आचार।।

घर में ही जब छुपे भेदिए,
अवसर देखें करते घात।
वीर धुरंधर योगी ज्ञानी,
इनसे खाते अक्सर मात।।

दुर्ग बयाना जीत लिया था
बाबर  के सपनों को तोड़
और मुगलिया सोच रहा था,
इसको कैसे दूँ मैं छोड़।

कंटक बनकर खटके साँगा,
छाती पर लोटे फिर साँप।
ढूँढ रहा था छेद कहीं पर,
दुर्बलता को लूँ मैं भाँप।।

रानी कर्मा चिंतित होती,
पुत्रों के लक्षण को देख।
पिता पुत्र के गुण में अंतर,
काली खींच रही थी रेख।।

चील शकुन से शत्रु अनेकों,
ढूँढ रहे थे अपना ठाँव।
संकट के बादल छाए थे
पूत पालने दिखते पाँव।।

सोच विचार करे यूँ कर्मा,
उठते मन में प्रश्न अनेक
कौन बनेगा उनके जैसा
मुझे न दिखता कोई एक।।

राणा साँगा जैसे राजा,
होते हैं लाखों में एक।
प्राण हथेली पर रखते हैं,
सदा निभाते अपनी टेक।।

साक्षी है इतिहास सदा से,
होते साँगा जैसे वीर।
कोई विदेशी कैसे आकर
हरता भारत माँ का चीर।।

वीर अमर रहते हैं जग में,
लिखते अपना वे इतिहास।
कायर स्वार्थी के कारण ही,
अरिदल मन में जगती प्यास।।

मंथन मन का करते-करते,
क्षत्राणी के खाली हाथ।
शीश नहीं मैं झुकने दूँगी,
ये रज चंदन सजती माथ।।

काल पलटता पाँसा अपना,
लिखता भाग्य विधाता लेख।
रात अमावस की वह काली,
घिर कर आई खींचे रेख।।

पंद्रह सौ सत्ताइस में फिर,
बाबर साँगा का संग्राम।
एक भूल राणा ने कर दी,
बिगड़े जिससे सारे काम।।

युद्ध बयाना जीत लिया जब,
भुसावर में किया विश्राम।
खानव में तब तक कर डाला,
सैन्य मुगल ने अपना काम।।

पाती परवन पाकर सारे,
रण मैदान डटे रजपूत।
मुगलों को सब धूल चटाएँ,
वीर यहाँ पर शौर्य अकूत।

मुगलों की तोपें बंदूँके,
वीरों के भाले तलवार।
युद्ध विकट भीषण होता था,
अरिदल मचता हाहाकार।

सैन्य मुगल भयभीत भयंकर,
काँप रहे ज्यूँ देखे शेर।
वार करें धड़ शीश कटें जब,
मुगलों के शव लगते ढेर।

अनहोनी होकर रहती है,
जाना किसने उसका खेल।
तीर लगा राणा के मस्तक,
और मची फिर रेलमपेल।

मूर्छित राणा की रक्षा हो,
युद्ध करो सब हो संहार
ओखल शीश दिए हैं अब तो
कैसे माने अपनी हार।।

अखेराज राणा को लेकर,
जा पहुँचे थे दौसा राज।
झाला अज्जा गज पर बैठे,
रजपूतों की रखते लाज।

देख मनोबल टूटा था फिर,
सेना भी हो गई निराश।
लड़ते-लड़ते हार चले जब,
और विजय की टूटी आस।

काला दिन वह था ऐसा जो,
काला ही लिखता इतिहास।
एक विदेशी भारत भू को,
आज जकड़ता अपने पाश।।

बर्बर बाबर युद्ध विजय कर
सारी हद को करता पार।
वीर गति पाए रजपूतों के
शीशों से बनती मीनार।।

गाजी गर्वित कहलाता वह,
पामर नीच अधम लो जान।
लालच मद में डूबा-डूबा,
रौंद रहा भारत का मान।।

साँगा स्वस्थ हुए दौसा में,
मन में लेते यह संकल्प।
बाबर को अब धूल चटाएँ,
काल बचा है देखो अल्प।।

चाह कहाँ होती है पूरी,
काल चले जब उल्टी चाल।
कायर लोभी के कारण ही
अरिदल की गलती है दाल।।

रणथंभौर चले फिर राणा,
रानी कर्मा का ये धाम।।
विचलित तन-मन से होते थे,
कब उनको आए आराम।।

बाबर जीत रहा रजवाड़े,
साम्राज्य का किया विस्तार।
बढ़ती जाती ताकत उसकी,
युद्ध बिना सब माने हार।।

मदनराय चंदेरी राजा,
बाबर पहुँचा उसके देश।
युद्ध करो या प्राण बचा लो,
संकट घोर कठिन परिवेश।।

राणा ले संकल्प चले फिर,
चंदेरी का देंगे साथ।
लोहे के अब चने चबाए
बाबर लौटे खाली हाथ।।

ईरिच गाँव रुके जब राणा,
सामंतों से करने बात।
अपने बनकर जो बैठे थे,
पीठ छुरे का करने घात।।

युद्ध नहीं करना था जिनको,
मुगलों से जो थे भयभीत।
मातृभूमि की रक्षा कारण,
कैसे बनते सच्चे मीत।।

मन में विष पलता था जिनके,
करने लगे थे वे षड़यंत्र।
भोजन में विष देकर मारो
सामंतों का बस ये मंत्र।।

और हुई उस अनहोनी से,
भारत भाग्य हुआ फिर अस्त।
शेर समान गरजता था जो,
छल छंदों से पड़ता पस्त।।

अपने पैरों मार कुल्हाड़ी,
गर्वित भूपति रिपु सामंत।
योद्धा हिंदूपत साँगा का,
किसने सोचा ऐसा अंत।।

कल्पी के काले पन्नों में,
खोया मेवाड़ी वो रत्न।
वार दिया जिसने निज जीवन,
भरसक उसने किए प्रयत्न।।

रतनसिंह गद्दी पर बैठा,
राणा का घोषित युवराज।
क्लेश मचा सत्ता को लेकर,
शासन के सब ढ़ीले काज।।

मेवाड़ी धरती की चिंता,
कर्मा को करती बैचेन।
सत्ता योग्य नहीं था कोई,
कैसे कटते वे दिन-रैन।।

पंद्रह सौ इकतीस छिड़ा था,
रजपूतों में ही संघर्ष।
रत्नसिंह के प्राणाहत से,
शासन का होता अपकर्ष।।

राजतिलक होता विक्रम का,
जिसको शासन का कम ज्ञान।
कैसे राज सम्हाले बालक,
कैसे रखता सबका मान।।

घोर कलह मेवाड़ छिड़ा फिर,
रुष्ट हुए थे रिपु सामंत।
कर्मा करती बात सभी से,
राज कलह का हो अब अंत।।

फूट पड़ी थी लूट मची थी,
टूट रहा मेवाड़ महान।
प्रश्न विकट कर्मा के आगे,
कुल का भी रखना था मान।।

विक्रम कैसे राज चलाता,
नीति नियम से था अनजान।
बहादुर शाह किया आक्रमण
गढ़ चित्तौड़ लगा था ध्यान।।

रणथंभौर दिया कर्मा ने,
और दिए ढेरों उपहार।
मेवाड़ नहीं सौंपूं तुमको,
संधि करो ये लो स्वीकार।।

सबके मन में चाह यही बस
बूँदी राज कुँवर विश्राम।
साथ तभी सब सामंतों का
बन जाएंगे बिगड़े काम।।

पन्ना धात्री अति विश्वासी,
विक्रम और उदय के संग।
भेज दिया कर्मा ने बूँदी,
सामंतों के देखे ढंग।।

मेवाड़ी धरती की पीड़ा,
बढ़ता जाता उसका ताप।
वीर कहाँ ऐसे थे जन्मे,
कुंभा साँगा और प्रताप।।

राज कलह सत्ता के लोभी,
लड़-लड़ करते प्राणाघात।
इनकी दुर्बलता के कारण,
शत्रु विदेशी देते मात।।

पंद्रह सौ पैंतीस हुआ फिर,
शाह युद्ध को था तैयार।
संकट के थे छाए बादल
गढ़ चित्तौड़ दोहरी मार।।

बाबर पुत्र हुमायूं अब तो,
जीत रहा था सारे प्रांत।
आँख गड़ी मेवाड़ी धरती ,
फिर वह कैसे रहता शांत।

संकट समक्ष चिंतित रानी,
करती रहती सोच विचार।
कोई वीर बचा ले नैया,
हो मेवाड़ का बेड़ा पार।।

पत्र हुमायूं को भेजा फिर,
रख रेशम का धागा एक।
शाह करे मनमानी अपनी,
वीर प्रयास करो तुम नेक।।

सेना तत्पर अरि दल की थी,
गढ़ चित्तौड़ करें कब वार।
नाक कटेगी युद्ध बिना अब,
लड़ने को सब थे तैयार।।

कर्मा नेतृत्व करे सभी का,
प्राण हथेली रख लो वीर।
आँख उठाकर देखे अरि दल,
छाती उसकी देना चीर।

मारेंगे या मर जाएंगे,
प्रण सबका ही था बस एक।
मातृभूमि की रक्षा करना,
आज निभाना अपनी टेक।।


जौहर कुंड सजा गढ़ भीतर,
प्राणों की किसको परवाह।
चीर बसंती तन पर धारे,
सीने में जलती थी दाह।।

गढ़ चित्तौड़ घिरा अरिदल से,
कूद पड़े रण वीर जवान।
तलवारें भाले बर्छी से,
रखने अपने कुल की आन।

गाजर मूली से अरिदल को
काट रहे थे वीर अनेक
मुट्ठी भर सैनिक थे लेकिन
आज निभाते अपनी टेक।

शाह बहादुर की सेना से,
लड़ते कब तक वीर सुवीर।
डूब रहा था सूर्य चमकता,
टूट रहा था सबका धीर।।

तेरह सहस्त्र वीर नारियाँ,
मुख मंडल पर जिनके तेज।
मर्यादा की रक्षा करने,
सोने जाती पावक सेज।।

गढ़ के पाषाणों ने देखी,
कुंड हवन की धधकी आग।
एकलिंग जयकार करें सब,
खेल रहीं थी ललना फाग।।

लिखता है मेवाड़ सदा से,
स्वर्णाक्षर में अपना नाम।
वीर सपूत यहाँ पर जन्मे,
बलिदानों का है यह धाम।

वीर अमर राणा साँगा की,
गाथा गाए सब संसार।
बाबर ने भी माना लोहा,
जीते जी कब मानी हार।।

धन्य सदा मेवाड़ी धरती,
जिसने पाए ऐसे लाल।
प्राण हथेली पर जो रखते,
डरकर भागे जिनसे काल।।


बप्पा रावल कुंभा साँगा,
हीर कनी से वीर प्रताप।
भाल तिलक भारत के गौरव,
उनको कौन सका है माप।

त्याग समर्पण पूरित ललना,
बलिवेदी पर चढ़ती आप।
शौर्य नहीं देखा उन जैसा
दिनकर जैसा उनका ताप।।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'



































































Monday, December 7, 2020

सोरठा शतक

 भारत देश महान,पावन इसकी भूमि है।

करे विश्व गुणगान,बसता जन-मन में यही।

2.

कल-कल करती नाद,गंगा माता पावनी।

देती है आह्लाद,शोभित है गलहार सी।

3.

यमुना तट पर कृष्ण,राधा संग विराजते।

करते सबका त्राण,योगी उनके सम नहीं।

4.

देता ज्ञान प्रकाश,सद्गुरु सूर्य समान है।

हो पूरी हर आस,उसके चरणों में सदा।

5.

शीतल धरती आज,पावस बूँदों से हुई।

मेघों का है राज,चंचल चपला नाचती।

6.

देख घटा घनघोर,चातक बोले जोर से।

वन में नाचे मोर, रिमझिम की लगती झड़ी।

7.

जीवन का आधार, निर्मल गंगा पावनी।

इसकी पावन धार,भारत भू को सींचती।

8.

पीड़ित सकल समाज,कोरोना के रोग से।

गूँज रही आवाज,वैश्विक संकट ये बड़ा।

9.

एकमात्र उपचार,कोरोना का है यही।

यह सारा संसार, सामाजिक दूरी रखे।

10

तजे गोपियाँ-ग्वाल,कान्हा निर्मोही बने।

कभी न पूछा हाल,मथुरा में जाकर बसे।

11.

मिले सफलता आर्य,नियमित यदि अभ्यास हो।

सधते सारे कार्य,साहस धीरज से सदा।

12.

सद्गुण होते नष्ट,अहंकार की आग में।

देता सबको कष्ट,मानव दानव सम बने।

 13.                  

भूले सब भगवान,हाला सबकी प्रिय बनी,

ज्ञानी खोए ज्ञान,इस हाला के सामने।

14.

रखिए मन में आस,मंथन मन का कीजिए।

हृदय शांति का वास, प्रश्नों के उत्तर मिलें।

15.

हृदय मिले आनंद,मीठी वाणी श्रव्य है।

रिश्ते होते मंद,कड़वे वचनों से सदा।

16.

कब जाने रघुनाथ, वैदेही की पीर को।

छोड़ा उनका साथ,राजधर्म के सामने।

17.

मुरली तेरी मौन,कान्हा आकर देख ले।

पीड़ा सुनता कौन, सूना-सूना जग लगे।

18.

नदिया जीवन धार,बसता घट में जीव है।

कण-कण में विस्तार,परम ज्योति का अंश ये।

19.

कहती मन की बात,नयनों से लगती झड़ी।

बिन बादल बरसात, हर्ष-शोक के संग में।

20.

मचता हाहाकार,श्रमिक दशा को देख के।

जितना हो उपकार,अपने मन से कीजिए।

21.

करिए उत्तम काम,संरक्षक बन दीन का।

मिलता प्रभु का धाम,उनकी सेवा से सदा।।

22.

जग में करती नाम,शिक्षित होती बेटियाँ।

करें असंभव काम,अपने पैरों पर खड़ी।।

23.

कहो सगुण साकार, निराकार

निर्गुण कहो।

सब उसके आकार,जीव उसी का अंश है।।

24.

संकट में है जान,कर्ज निरंतर बढ़ रहा।

थकता नहीं किसान, रात-दिन मेहनत करे। 

25.

देता अपनी जान,जीवन-नैया डोलती।

भटके रोज किसान,न्याय नहीं मिलता उसे।

26.

तन-मन लगती आग,भीषण गर्मी जब पड़े।

व्यर्थ लगे सब राग,लू बैरी बन कर बहे ।‌।

27.

पक्षी होते मौन,उपवन सूने से लगें।

समझेगा अब कौन,उजड़े नीड़ों की व्यथा।

28.

यमुना तारणहार,गंगा जीवनदायिनी।

जैसे हीरक हार,भारत भू पर शोभती।।

29.

अनुपम दे संदेश,कर्मयोग के ज्ञान का।

जिससे कटते क्लेश,गीता जीवन सार है।।

30.

हो अधर्म का अंत,पार्थ उठाओ शस्त्र तुम।

गीता ज्ञान अनंत,रणभूमि में कृष्ण कहे।।

31.

पानी है अनमोल, बूंद-बूंद संचित करो।

देखो आँखें खोल,धरा कंठ भी सूखता।।

32.

व्यर्थ न हो बर्बाद,बर्षा जल संचित करो।

रखना इसको याद,जल ही जीवन है सदा।।

33.

सूखे नदिया-ताल,पनघट प्यासे हैं पड़े।

हुआ हाल-बेहाल,भीषण गर्मी में सदा।

34.

मिलता जीवनदान,पानी की इक बूँद से।

कीमत इसकी जान,संरक्षण जल का करो।

35.

बुझी कहाँ कब प्यास,सागर के जल से

कभी।

बनती जीवन आस,वर्षा की इक बूंद भी।।

36.

बने रहे अनजान,पानी-पानी सब करें।

रखें नहीं वे ध्यान,जल संरक्षण का कभी ।।

37.

व्यर्थ बहे क्यों बूँद,पानी सदा बचाइए।

बैठे आँखें मूँद,इसके बिन जीवन नहीं ।।

38.

देखो आँखें खोल,जल संकट है सामने।

जानो इसका मोल,वर्षा जल संचय करो।।

39.

हुई नहीं बरसात,सावन सूखा ही गया।

मौसम ने दी मात,हलधर चिंतित है बड़ा।।

40

होता बड़ा निराश,हलधर बैठा खेत में।

टूटी उसकी आस,पछुआ बादल ले उड़ा

41.

चमक रही पुरजोर, चंचल चपला दामिनी।

बड़ा भयंकर शोर, गरज-गरज बादल करें।।

42.

पूरी कैसे आस,प्रियतम है परदेश में।

विरहिन हुई उदास,लगती सावन की झड़ी।।

43.

करते जय जयकार,भोले के दरबार में।

भक्तों की भरमार,श्रद्धा भाव से हैं भरे।।

44.

गाती सखियाँ गीत,सावन में झूले पड़े।

छलक उठी है प्रीत,तन-मन उनका झूमता।।

45.

मुख में शिव का नाम,काँवर काँधे पर सजी।

पहुँचे शिव के धाम, संगी-साथी साथ में।।

46.

लेकर चलते लोग,काँवर शिव के नाम की।

करें ध्यान अरु योग,भक्ति-भावना से भरे।।

47.

आओ शिव के द्वार,श्रावण के इस मास में।

करें सदा उद्धार,औघड़-दानी वे सदा।।

48.

लेकर पावन नीर,काँवरिया चलता चले।

होता नहीं अधीर,काँटे चुभते पाँव में।।

49.

शिव महिमा के गीत,काँवरिया गाता चले।

मन में बसती प्रीत,आनंदित तन-मन लगे।।

50.

देखे वारिद ओर,चातक प्यासा ही रहे।

करता रहता शोर,स्वाति बूँद को ढूँढता।।

51.

भूल गए घर-द्वार,कोरोना योद्धा सभी।

शब्द कहूँ मैं चार,ऐसे वीरों के लिए।।

52.

वीर बने चट्टान,कोरोना के काल में।

रखें हथेली जान,श्वेद-रक्त टीका लगा।।

53.

यही अनोखी बात, मानवता के धर्म की।

सेवा ये दिन रात,भूखे-प्यासों की करें।।

54

सबका रखते ध्यान,अपनी सेहत भूलकर।

उसपर वारें जान,देश प्रेम सबसे बड़ा।।

55.

कोरोना के वीर,पुलिस चिकित्सक ये सभी।

बाँटे सबकी पीर,पूरे निष्ठा भाव से।।

56.

इनका हो सम्मान,जीवन रक्षक ये बने।

दाँव लगाते जान,कोरोना योद्धा सदा।।

57.

करते सभी प्रयोग,कोरोना के बीच में।

काबू में हो रोग,सबका जीवन तब बचे।।

58.

इसका रखते ध्यान, भूखों को भोजन मिले।

रखना इनका मान,कोरोना के काल में।।

59.

बनें जागरुक लोग,सामाजिक दूरी रखें।

दूर रहेगा रोग, *सबका है प्रयास यह

60.

जन सेवा की चाह,जिनके मन में है जगी।

चले धर्म की राह,संकट के इस काल में

61.

मोहक माधव श्याम,राधा है मनमोहिनी।

देखूँ आठों याम,आभा मनमंदिर बसी।।

62.


देती ये संदेश,गोपी सुनकर योग का।

बैठे वे परदेश,चंचल चितवन हम बँधे।

63.

जपूँ तुम्हारा नाम,वंदन प्रभु तेरा करूँ।

मन न रहे निष्काम,ममता माया मोह में।

64.

कान्हा तेरी प्रीत,राधा के मन में बसी।

तोड़ी सारी रीत,मथुरा में जाके बसे।।

65.

जप ले हरि का नाम,थोड़ा सा जीवन बचा।

समझ न अपना धाम,इस नश्वर संसार को।

66.

देखें गोपी ग्वाल,नटखट अठखेली करें।

यशुमति का ये लाल,तारा सबकी आँख का।

67.

शीतल वाणी आग,सुंदर मन के भाव हों।

प्रभु तेरा अनुराग, मनमंदिर में बसा रहे।।

68.

करो काम बस नेक,जाना प्रभु के धाम है।

सोचो सहित विवेक,माटी में माटी मिले।।

69.

राधा हुई उदास , कान्हा आके देख ले।

कौन रचाए रास,वन-उपवन सूने पड़े।।

70.

सुध ले लो इक बार,कान्हा गोपी-ग्वाल की।      

दे दो अब उपहार,अपनी सच्ची प्रीत का।।

71.

झेले ऋण की मार,भूमिपुत्र ये देश के।

देते जीवन हार,शासन अंधा है बना ।।

72.

हरियाली चहुँ ओर,फसलें फूली खेत में।

मन में नाचे मोर,कृषक मगन हो झूमता।।

73.

भरें अन्न भंडार,धरती की सेवा करें।

देते सब कुछ वार,भूमिपुत्र सच्चे यही।।

74.

देखे नभ की ओर,बैठा हलधर खेत में।

कहाँ घटा घनघोर, सावन सूखा बीतता।।

75.

हलधर जोते खेत,स्वेद बहाए धूप में।

शासन अब तो चेत,उसकी बिगड़ी है दशा।।

76.

यमुना जी के तीर,राधा बैठी सोचती।

वे हलधर के वीर,छलिया नटखट हैं बड़े।।

77.

गाते-गाते गीत,हलधर जोते खेत को।

करता सच्ची प्रीत,अपनी फसलों से सदा।।

78.

हुई फसल बेकार,टिड्डी दल के घात से।

पड़ी दोहरी मार,टपके आँसू आँख से।।

79.

आँखों में आँसू लिए,भटके हलधर आज।

पीड़ा को समझे नहीं,पूँजी वादी राज।।

80.

शस्य-श्यामला भू सदा,देती है वरदान।

भूमिपुत्र का वह सदा,रख लेती है मान।।

81.

सुंदर बने समाज,प्रेम समर्पण त्याग से।

बुरा बनाती आज,दूषित मन की भावना।।

82.

रहना तुम खुशहाल,जीवन संकट से भरा।

वक्त भी बदले चाल,साहस हो जब साथ में।।

83.

बनती है पहचान,अच्छे कर्मों से सदा।

रखना अपना मान,जीवन के संघर्ष में।।

84.

बढ़े देश का मान,कर्म करो ऐसे सदा।

रखिए अपनी आन,जग में ऊँचा नाम हो।।

85.

झुलसे आज समाज, मतभेदों की आग में।

बिगडे़ं सारे काज,बैरी जब अपने बने।।

86.

जाता हरि के द्वार,चाहत लेकर प्रेम की।

भूल गया घर-द्वार,देखी मूरत मोहिनी।।

87.

रखना मेरा ध्यान,वरण किया प्रभु आपको।

नहीं मुझे कुछ ज्ञान, मैं मूरख अनजान हूँ।।

88.

रख मन में विश्वास,साहस धीरज साथ में।

पूरी होगी आस,संकट कितने हों बड़े।।

89

संयम चाबुक हाथ,आसन सदा पवित्र हो।

ध्यान-योग के साथ,मन तुरंग बस में करो।।

90.


उत्तम बने समाज,सदाचार जो सब करें।

सुधरे सबका आज,दुराचार का अंत हो

९१.

छाया है आलोक,अँधकार छँटने लगा।

मिटते सारे शोक, ईश्वर के आशीष से।।

९२.

गुरुवर श्री विज्ञात,दिव्यपुंज है ज्ञान के।

हरषे मन के पात,देते हमको प्रेरणा।।

९३.

करें सदा उद्धार,गुरु ही खेवनहार है।

होता बेड़ा पार,जीवन को मिलती दिशा।।

९४.

मिले मुझे बस राम,चातक मन ये चाहता।

जपना उनका नाम,मनमंदिर में वे बसें।।

९५.

भज लो हरि का नाम,जितना जीवन शेष है।

वही मोक्ष का धाम, भवसागर से तारते।।

९६.

समझो इसका मोल,जीवन है अनुपम बड़ा।    

बोलो मीठे बोल,कर्म करो उत्तम सदा।।

९७.

जैसे बहता नीर,जीवन इस संसार में।

हरो पराई पीर,पर उपकार करो सदा।।

९८.

भाव भरे गंभीर,दोहा ऐसी है विधा।

कह दे मन की पीर,गागर में सागर भरे।।        

९९.

सुगंध बसे समीर,सागर में नदियाँ मिले।

नश्वर छोड़ शरीर,जीव राम से जा मिले।।

१००.

करे भयंकर शोर,चंचल चपला दामिनी।

भीगे नयना कोर,विरहिन काँपी जोर से।।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'






Thursday, August 13, 2020

जीवन सार


मानव जीवन के लिए, नैतिक मूल्य महान।
जीवन उत्तम हो सदा, दूर रहे अज्ञान।
दूर रहे अज्ञान,सत्य पथ बन अनुगामी।
दया,क्षमा अरु प्रेम,बनो करुणा के स्वामी।
कहती 'अभि' निज बात,कर्म करना है आनव।
पालन नैतिक मूल्य, बनोगे सच्चे मानव।
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गागर जल से है भरी,छलके प्रेम अपार।
जब तक जल से है भरी,तब तक ही संसार।
तब तक ही संसार,रखो हिय गागर जैसा।
बूँद-बूँद उपयोग,समय कब आए कैसा।
कहती'अभि' निज बात,जीव का तन है आगर।
जल संग मिलता जल,फूटती जब है गागर।

गागर-तन,घड़ा
जल-प्राण,जल
बूंद-जल की बूँद,पल।
जल-प्राण-परमात्मा।
आगर-घर ,निवासस्थान
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आधा जीवन खो दिया,किया कहाँ कुछ काम।
मन अस्थिर चंचल रहा,लिया न प्रभु का नाम।
लिया न प्रभु का नाम,काम में ऐसा उलझा।
जैसे जाल कुरंग,उलझ के फिर कब सुलझा।
कहती'अभि'निज बात,दिखें बाधा ही बाधा।
जपलो प्रभु का नाम ,बचा ये जीवन आधा।

काम-कर्म
काम-काम वासना
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नश्वर इस संसार में,यात्रा करता जीव।
रमता तनगृह में सदा, छोड़े तो निर्जीव।
छोड़े तो निर्जीव,पथिक नित चलता जाता।
अमर अछेद अभेद,आग में जल न पाता।
कहती'अभि'निज बात,जीव में बसता ईश्वर।
करो सदा सत्कर्म,मिटेगा तन ये नश्वर।
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मेला ये संसार है,मिलते कितने लोग।
कुछ चलते हैं साथ में,बनता ऐसा योग।
बनता ऐसा योग,लगें अपनों से ज्यादा।
संकट में दें साथ, निभाते हैं हर वादा।
कहती'अभि'निज बात,मनुज कब रहा अकेला।
जाता खाली हाथ,छोड़ दुनिया का मेला।
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अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

Monday, August 10, 2020

यशुमति का लाल

 नटखट अठखेली करे,देखें गोपी ग्वाल।

माखन मिश्री मुँह लगी,यशुमति का है लाल।


यशुमति का है लाल,बना वो सबका प्यारा।


मोर मुकुट है भाल,बदन पीतांबर न्यारा।


कहती'अभि'निज बात,तोड़ता मटकी झटपट।


बाल त्रिलोकीनाथ,करें नित लीला नटखट।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

स्वरचित मौलिक

Wednesday, August 5, 2020

ढोंग माथे का चंदन

चंदन मस्तक पर लगा,बनते हैं जो संत।
भक्ति मर्म जाने नहीं,दुर्गुण बसे अनंत।
दुर्गुण बसे अनंत,बनें वे लोभी -कामी।
रचते बड़े प्रपंच,भले हों कितने नामी।
कहती'अभि'निज बात,करो क्यों इनका वंदन।
कुत्सित सदा विचार,ढोंग माथे का चंदन।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

Monday, August 3, 2020

कुंडलियाँ

                ममता

ममता की समता नहीं,सब कुछ देती वार।
बस इसकी ही छाँव में,खुशियाँ मिलें अपार।
खुशियाँ मिले अपार,खिले बचपन फूलों सा।
अपना सब कुछ हार,चुने वह पथ शूलों सा।
करे नहीं छल-छंद,दिखाती है वह समता।
बनी चाँदनी तुल्य,चंद्र सी शीतल ममता।

               बाबुल

बिटिया बाबुल से कहे,मत भेजो ससुराल।
तेरी तो मैं लाड़ली,क्रूर कठिन है काल।
क्रूर कठिन है काल,कहे क्यों मुझे पराई।
कैसे लगती भार,तुझे अपनी ही जाई।
दो-दो हैं परिवार,कहाँ है मेरी कुटिया।
बदलो अब ये रीति,तभी मैं तेरी बिटिया।

              भैया

भैया तेरी याद में, मुझे न आए चैन।
आँखों में छवि घूमती,दिन हो चाहे रैन।
दिन हो चाहे रैन,बहे आँसू की धारा।
जैसे टूटे बाँध,टूटता नदी किनारा।
कैसे धर ले धीर,दूर जो हुआ खिवैया।
मात-पिता का चैन,बहन का प्यारा भैया।

              बहना

बहना बनकर बावरी,नाचे जैसे मोर।
भैया वर के रूप में,लगता नंदकिशोर।
लगता नंदकिशोर,चंद्र सा मुख है चमका।
पीत वसन हैं अंग, सूर्य ज्यों नभ पर दमका।
अधरों पर मुस्कान,शीश पगड़ी है पहना।
देती नजर उतार,लगाती काजल बहना।

           सखियाँ

सखियाँ झूला झूलती,  वृंदावन के बाग।
मनमंदिर में मीत का,बसा हुआ है राग।
बसा हुआ है राग,राग वे मधुर सुनाती।
ऐसे छेड़ें तान,लगे बुलबुल हैं गाती।
मदन करे श्रृंगार,देखती सबकी अखियाँ।
रति का लगती रूप,बाग में सारी सखियाँ।

राग-प्रेम,
राग-संगीत,गान(यमक)

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

Sunday, August 2, 2020

कविता

कविता कवि की कल्पना,हृदय भाव उद्गार।
रस की निर्झरणी बने,तेज धार तलवार।
तेज धार तलवार,समय की बदले धारा।
सूर्य किरण से तेज, कलुष तम हरती सारा।
कहती 'अभि' निज बात,क्रांति की बहती सरिता।
लेकर तीर-कमान,हाथ में चलती कविता।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

हाइकु शतक

 अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' 1) कचरा गड्ढा~ चीथड़े अधकाया नवजात की। 2) शीत लहर~ वस्त्रविहीन वृद्ध  फुटपाथ पे । 3) करवाचौथ- विधवा के नैनों से...