Saturday, June 12, 2021

वीरों के वीर "राणा सांगा"




मेवाड़ के वीर सपूत महाराणा संग्रामसिंह जिन्हें "राणा सांगा"के नाम से जाना जाता है उनकी जीवन गाथा को "आल्हा छंद"में प्रस्तुत करने का तुच्छ प्रयास किया है।अपनी राय एवं प्रतिक्रिया अवश्य दें।

दोहा-

सबका वंदन मैं करुँ,सबको करूँ प्रणाम।

गुरुजन के आशीष से,सँवरे बिगड़े काम।।


राणा कुल की शान बढ़ायी,

वीर प्रतापी थे संग्राम।

रायमल पितु नाम था न्यारा,

मेवाड़ सदा से निज धाम।।


मातृभूमि रज हिय को प्यारी,

चंदन बनके शोभित भाल।

उसकी रक्षा करने के हित,

बनकर रहते जैसे ढ़ाल।।


छोटे सुत वे थे राणा के,

गुण उनके पहचाने तात।

सत्ता सौंपी वीर लला को

समझी सारी उनकी बात।।


अग्रज बैरी बनकर बैठे,

प्राणों पर करते आघात।

शौर्य बसा रग-रग में उनके,

कैसे खाते फिर वे मात।।


सिसोदिया कुलभूषण राणा,

सांगा जिनका नाम महान।

स्वर्णाक्षर में शोभित जग में,

चहुँदिश करती इनका गान।।


सूरज बनकर चमके जग में,

और बढ़ाया सबका मान।

रजपूती मर्यादा रक्षक,

नींव रखी सुख देकर दान।।


खंडित राज्य-प्रजा के मन में,

अखंडता का देकर ज्ञान।

राज्य बढ़ाया सांगा ने फिर,

जग को होता इसका भान।।


धीर पराक्रम और चतुरता,

बाहुबल का कर उपयोग।

अरिदल उनसे थर-थर कांँपे,

भय का लगता उनको रोग।।


शोभित है मेवाड़ी धरती, 

वीरों से पाकर संस्कार ।

बलिदानों की गाथा गाती,

जिसमें जन्मे रत्न हजार।।


अपने तन की भूलें सुध-बुध,

कर्तव्यों का रखते ध्यान।

अरि दल आँख उठाकर देखे,

बन जाते थे वे चट्टान।।


वीरों के पथ में बिछे,संकट बनके शूल।

सत्ता पद को लोभ बढ़े,रिश्ते बनते धूल।।


अग्रज पृथ्वीराज चिढ़े थे,

क्योंकर ये बनता सम्राट।

हक मेरा है गद्दी ऊपर,

कबसे देखूं इसकी बाट।।


हाथ कटारी उनके थी फिर,

साँगा पर करते थे वार।

एक नयन को फोड़ दिया था,

बैरी निकला वो खूँखार।।


ज्योतिष कहता साँगा होगा,

राजा गद्दी का हकदार।

जयमल पृथ्वी उस पर करते,

तलवारों से कितने वार।।


राठौरी शासक बीदा ने,

साँगा का रक्खा था मान।

प्राण गँवाए अपने उसने,

रक्षा का था उसको ध्यान।।


करमचंद ने शरणागत को,

दिया सुरक्षा का वरदान।

छुपकर रहते राणा साँगा,

संकट में थी उनकी जान।।


पृथ्वी जयमल का अंत हुआ,

शासक निकले वे कमजोर।

जैसी करनी वैसी भरनी

रात गई अब आती भोर।


पंद्रह सौ नौ में भाग्य जगे

साँगा थामे सत्ता डोर।

हर्ष मनाते सब मेवाड़ी,

भीग उठे नयनों के कोर।


स्वाधीनता प्रिय बनी उनकी

करते कोशिश वे पुरजोर।

मातृभूमि की रक्षा होगी,

हिंदूपत का आया दौर।।


बाला वीर यहाँ की जग में,

अपनी उनकी है पहचान।

त्याग बसा रग-रग में उनके,

बोल रहे गढ़ के पाषाण।। 


राज करें राणा नरबध्दू,

बूँदी उनका था निज धाम।

जन्म लिया सुंदर तनया ने,

कर्णावती सुता का नाम।।


मात-पिता हर्षित होते थे,

बिटिया उनकी थी गुणवान।

तेज भरा मुखमंडल दीपित,

हाड़ा कुल का थी वो मान।।


योग्य मिले वर इस चिंता में,

व्याकुल होते उसके तात।

पाकर राणा का संदेशा,

हिय सर फूल उठे जलजात।।


मित्र बने बूँदी मेवाड़ी,

मन राणा के थी यह बात।

संधि करें संबंध बनाएँ,

फिर देवें अरिदल को मात।।


कर्णावती रूपसी बाला,

करते सब उसका सम्मान।

बनी परिणिता राणा जी की,

रखती थी क्षत्राणी आन।।


झूम उठा मेवाड़ खुशी से,

नाच उठा था गढ़ चित्तौड़।

ड्योढ़ी पर पग रक्खे रानी,

एक कथा लिखती बेजोड़।


राणा की बनकर परछाँई,

राजनीति की लेती थाह।

वीरों के हे वीर सुनो तुम

पूरी करना अपनी चाह।।


काल सदा कब सम रहता है,

दिन बीते तो आती रात

साँगा युद्ध करें अरि दल से

बिन बादल ज्यों हो बरसात।।


धर्म ध्वजा थामी कर्मा ने,

कर्म बना जीवन का सार।

लिखती जाती लेख अनोखे,

कर्तव्यों का लेकर भार।।


साँगा एक ध्वजा के नीचे,

करें संगठन का विस्तार।

मातृभूमि प्रति प्रेम जगाते,

देख समय की पैनी धार।।


लोधी खिलजी बाबर मिलकर,
ललचाए सब गिद्ध समान।
मोहक मेवाड़ी धरती पर,
राज करें बस इसका ध्यान।।

देख रही क्षत्राणी कर्मा,
साँगा के पुरजोर प्रयास।
आन हमारी सबसे ऊपर,
प्राण मिटे पूरी हो आस।।

दो -दो फूल खिले गढ़ आँगन,
विक्रम और उदय जिन नाम।
साहस शौर्य पराक्रम धारो,
कर्मा शिक्षा दे निज धाम।।

सामंतों सरदारों में अब,
खूब जमी कर्मा की धाक।
सोए भाव जगे फिर मन के,
सबको प्यारी अपनी नाक।।

सूई नोंक बराबर धरती,
लेकर देखे देंगे चीर।
आँख उठाकर देखे कोई,
रखने वाले हम न धीर।।

चहुँदिश मान बढ़ा मेवाड़ी,
गाते चारण उनका गान।
वीर पताका फहराते नभ,
शीश कटे रखते सम्मान।।

राणा हिंदूपत मन जागी,
ऐसी ज्वाला ऐसी प्यास।
हिंदूछत्र बने निज धरती,
अरिदल की टूटे हर आस।।

बागड मालव मारवाड़ को,
छलबल से बंधन में बाँध।
खेले फिर वे खेल निराले,
शेर छुपा कब बैठा माँद।।

गूँज उठे जयकारे जग में
साँगा शासक एक महान।
घाव असी ले तन पर डोले,
फूँक रहा था मृत में जान।।

शौर्य क्षमा गुण कार्य कुशलता,
साँगा के आभूषण नेक।
गागरोन का युद्ध लड़ा जब,
जीता मालव संग विवेक।

खिलजी को फिर धूल चटायी,
पूर्ण किया अपना सब काज।
दान क्षमा का देकर उसने
सौंपा वापस मालव राज।

बाबर दिल्ली जीत चुका जब,
साँगा खटका उसकी आँख।
मन पंछी विचलित सा रहता,
कब दाबूँ मैं इसको काँख।।

महिमा मंडन करने वाले,
बोल रहे मिश्री से बोल।
मन में विषधर थे फुंकारे
स्वार्थ रहा था उनको तोल।।

अच्छे पन का ढोंग रचाकर,
जीत लिया उनका विश्वास।
मन ही मन में ढाह जलाती,
जैसे जलती सूखी घास।।

शासन सत्ता लोभ बढ़ाए,
बदले मानव का व्यवहार।
कायर भ्रष्ट बने वह पल में
गिरगिट सा बदले आचार।।

घर में ही जब छुपे भेदिए,
अवसर देखें करते घात।
वीर धुरंधर योगी ज्ञानी,
इनसे खाते अक्सर मात।।

दुर्ग बयाना जीत लिया था
बाबर  के सपनों को तोड़
और मुगलिया सोच रहा था,
इसको कैसे दूँ मैं छोड़।

कंटक बनकर खटके साँगा,
छाती पर लोटे फिर साँप।
ढूँढ रहा था छेद कहीं पर,
दुर्बलता को लूँ मैं भाँप।।

रानी कर्मा चिंतित होती,
पुत्रों के लक्षण को देख।
पिता पुत्र के गुण में अंतर,
काली खींच रही थी रेख।।

चील शकुन से शत्रु अनेकों,
ढूँढ रहे थे अपना ठाँव।
संकट के बादल छाए थे
पूत पालने दिखते पाँव।।

सोच विचार करे यूँ कर्मा,
उठते मन में प्रश्न अनेक
कौन बनेगा उनके जैसा
मुझे न दिखता कोई एक।।

राणा साँगा जैसे राजा,
होते हैं लाखों में एक।
प्राण हथेली पर रखते हैं,
सदा निभाते अपनी टेक।।

साक्षी है इतिहास सदा से,
होते साँगा जैसे वीर।
कोई विदेशी कैसे आकर
हरता भारत माँ का चीर।।

वीर अमर रहते हैं जग में,
लिखते अपना वे इतिहास।
कायर स्वार्थी के कारण ही,
अरिदल मन में जगती प्यास।।

मंथन मन का करते-करते,
क्षत्राणी के खाली हाथ।
शीश नहीं मैं झुकने दूँगी,
ये रज चंदन सजती माथ।।

काल पलटता पाँसा अपना,
लिखता भाग्य विधाता लेख।
रात अमावस की वह काली,
घिर कर आई खींचे रेख।।

पंद्रह सौ सत्ताइस में फिर,
बाबर साँगा का संग्राम।
एक भूल राणा ने कर दी,
बिगड़े जिससे सारे काम।।

युद्ध बयाना जीत लिया जब,
भुसावर में किया विश्राम।
खानव में तब तक कर डाला,
सैन्य मुगल ने अपना काम।।

पाती परवन पाकर सारे,
रण मैदान डटे रजपूत।
मुगलों को सब धूल चटाएँ,
वीर यहाँ पर शौर्य अकूत।

मुगलों की तोपें बंदूँके,
वीरों के भाले तलवार।
युद्ध विकट भीषण होता था,
अरिदल मचता हाहाकार।

सैन्य मुगल भयभीत भयंकर,
काँप रहे ज्यूँ देखे शेर।
वार करें धड़ शीश कटें जब,
मुगलों के शव लगते ढेर।

अनहोनी होकर रहती है,
जाना किसने उसका खेल।
तीर लगा राणा के मस्तक,
और मची फिर रेलमपेल।

मूर्छित राणा की रक्षा हो,
युद्ध करो सब हो संहार
ओखल शीश दिए हैं अब तो
कैसे माने अपनी हार।।

अखेराज राणा को लेकर,
जा पहुँचे थे दौसा राज।
झाला अज्जा गज पर बैठे,
रजपूतों की रखते लाज।

देख मनोबल टूटा था फिर,
सेना भी हो गई निराश।
लड़ते-लड़ते हार चले जब,
और विजय की टूटी आस।

काला दिन वह था ऐसा जो,
काला ही लिखता इतिहास।
एक विदेशी भारत भू को,
आज जकड़ता अपने पाश।।

बर्बर बाबर युद्ध विजय कर
सारी हद को करता पार।
वीर गति पाए रजपूतों के
शीशों से बनती मीनार।।

गाजी गर्वित कहलाता वह,
पामर नीच अधम लो जान।
लालच मद में डूबा-डूबा,
रौंद रहा भारत का मान।।

साँगा स्वस्थ हुए दौसा में,
मन में लेते यह संकल्प।
बाबर को अब धूल चटाएँ,
काल बचा है देखो अल्प।।

चाह कहाँ होती है पूरी,
काल चले जब उल्टी चाल।
कायर लोभी के कारण ही
अरिदल की गलती है दाल।।

रणथंभौर चले फिर राणा,
रानी कर्मा का ये धाम।।
विचलित तन-मन से होते थे,
कब उनको आए आराम।।

बाबर जीत रहा रजवाड़े,
साम्राज्य का किया विस्तार।
बढ़ती जाती ताकत उसकी,
युद्ध बिना सब माने हार।।

मदनराय चंदेरी राजा,
बाबर पहुँचा उसके देश।
युद्ध करो या प्राण बचा लो,
संकट घोर कठिन परिवेश।।

राणा ले संकल्प चले फिर,
चंदेरी का देंगे साथ।
लोहे के अब चने चबाए
बाबर लौटे खाली हाथ।।

ईरिच गाँव रुके जब राणा,
सामंतों से करने बात।
अपने बनकर जो बैठे थे,
पीठ छुरे का करने घात।।

युद्ध नहीं करना था जिनको,
मुगलों से जो थे भयभीत।
मातृभूमि की रक्षा कारण,
कैसे बनते सच्चे मीत।।

मन में विष पलता था जिनके,
करने लगे थे वे षड़यंत्र।
भोजन में विष देकर मारो
सामंतों का बस ये मंत्र।।

और हुई उस अनहोनी से,
भारत भाग्य हुआ फिर अस्त।
शेर समान गरजता था जो,
छल छंदों से पड़ता पस्त।।

अपने पैरों मार कुल्हाड़ी,
गर्वित भूपति रिपु सामंत।
योद्धा हिंदूपत साँगा का,
किसने सोचा ऐसा अंत।।

कल्पी के काले पन्नों में,
खोया मेवाड़ी वो रत्न।
वार दिया जिसने निज जीवन,
भरसक उसने किए प्रयत्न।।

रतनसिंह गद्दी पर बैठा,
राणा का घोषित युवराज।
क्लेश मचा सत्ता को लेकर,
शासन के सब ढ़ीले काज।।

मेवाड़ी धरती की चिंता,
कर्मा को करती बैचेन।
सत्ता योग्य नहीं था कोई,
कैसे कटते वे दिन-रैन।।

पंद्रह सौ इकतीस छिड़ा था,
रजपूतों में ही संघर्ष।
रत्नसिंह के प्राणाहत से,
शासन का होता अपकर्ष।।

राजतिलक होता विक्रम का,
जिसको शासन का कम ज्ञान।
कैसे राज सम्हाले बालक,
कैसे रखता सबका मान।।

घोर कलह मेवाड़ छिड़ा फिर,
रुष्ट हुए थे रिपु सामंत।
कर्मा करती बात सभी से,
राज कलह का हो अब अंत।।

फूट पड़ी थी लूट मची थी,
टूट रहा मेवाड़ महान।
प्रश्न विकट कर्मा के आगे,
कुल का भी रखना था मान।।

विक्रम कैसे राज चलाता,
नीति नियम से था अनजान।
बहादुर शाह किया आक्रमण
गढ़ चित्तौड़ लगा था ध्यान।।

रणथंभौर दिया कर्मा ने,
और दिए ढेरों उपहार।
मेवाड़ नहीं सौंपूं तुमको,
संधि करो ये लो स्वीकार।।

सबके मन में चाह यही बस
बूँदी राज कुँवर विश्राम।
साथ तभी सब सामंतों का
बन जाएंगे बिगड़े काम।।

पन्ना धात्री अति विश्वासी,
विक्रम और उदय के संग।
भेज दिया कर्मा ने बूँदी,
सामंतों के देखे ढंग।।

मेवाड़ी धरती की पीड़ा,
बढ़ता जाता उसका ताप।
वीर कहाँ ऐसे थे जन्मे,
कुंभा साँगा और प्रताप।।

राज कलह सत्ता के लोभी,
लड़-लड़ करते प्राणाघात।
इनकी दुर्बलता के कारण,
शत्रु विदेशी देते मात।।

पंद्रह सौ पैंतीस हुआ फिर,
शाह युद्ध को था तैयार।
संकट के थे छाए बादल
गढ़ चित्तौड़ दोहरी मार।।

बाबर पुत्र हुमायूं अब तो,
जीत रहा था सारे प्रांत।
आँख गड़ी मेवाड़ी धरती ,
फिर वह कैसे रहता शांत।

संकट समक्ष चिंतित रानी,
करती रहती सोच विचार।
कोई वीर बचा ले नैया,
हो मेवाड़ का बेड़ा पार।।

पत्र हुमायूं को भेजा फिर,
रख रेशम का धागा एक।
शाह करे मनमानी अपनी,
वीर प्रयास करो तुम नेक।।

सेना तत्पर अरि दल की थी,
गढ़ चित्तौड़ करें कब वार।
नाक कटेगी युद्ध बिना अब,
लड़ने को सब थे तैयार।।

कर्मा नेतृत्व करे सभी का,
प्राण हथेली रख लो वीर।
आँख उठाकर देखे अरि दल,
छाती उसकी देना चीर।

मारेंगे या मर जाएंगे,
प्रण सबका ही था बस एक।
मातृभूमि की रक्षा करना,
आज निभाना अपनी टेक।।


जौहर कुंड सजा गढ़ भीतर,
प्राणों की किसको परवाह।
चीर बसंती तन पर धारे,
सीने में जलती थी दाह।।

गढ़ चित्तौड़ घिरा अरिदल से,
कूद पड़े रण वीर जवान।
तलवारें भाले बर्छी से,
रखने अपने कुल की आन।

गाजर मूली से अरिदल को
काट रहे थे वीर अनेक
मुट्ठी भर सैनिक थे लेकिन
आज निभाते अपनी टेक।

शाह बहादुर की सेना से,
लड़ते कब तक वीर सुवीर।
डूब रहा था सूर्य चमकता,
टूट रहा था सबका धीर।।

तेरह सहस्त्र वीर नारियाँ,
मुख मंडल पर जिनके तेज।
मर्यादा की रक्षा करने,
सोने जाती पावक सेज।।

गढ़ के पाषाणों ने देखी,
कुंड हवन की धधकी आग।
एकलिंग जयकार करें सब,
खेल रहीं थी ललना फाग।।

लिखता है मेवाड़ सदा से,
स्वर्णाक्षर में अपना नाम।
वीर सपूत यहाँ पर जन्मे,
बलिदानों का है यह धाम।

वीर अमर राणा साँगा की,
गाथा गाए सब संसार।
बाबर ने भी माना लोहा,
जीते जी कब मानी हार।।

धन्य सदा मेवाड़ी धरती,
जिसने पाए ऐसे लाल।
प्राण हथेली पर जो रखते,
डरकर भागे जिनसे काल।।


बप्पा रावल कुंभा साँगा,
हीर कनी से वीर प्रताप।
भाल तिलक भारत के गौरव,
उनको कौन सका है माप।

त्याग समर्पण पूरित ललना,
बलिवेदी पर चढ़ती आप।
शौर्य नहीं देखा उन जैसा
दिनकर जैसा उनका ताप।।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'



































































6 comments:

  1. राणा सांगा की इस अधूरी वीर-गाथा को आगे बढ़ाइए !

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    1. जी आदरणीय अवश्य🙏🙏 आभार आपका ब्लाग पर आने के लिए 🙏 सादर

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  2. भारत के इतिहास में रुचि रखने वाला कौन है जो इस राजस्थानी वीर के नाम से परिचित न हो। मैंने राणा सांगा की गाथा केवल इतिहास की पुस्तकों में ही नहीं, वरन अन्य प्रकार से भी पढ़ी। अनंत कुशवाहा द्वारा राजस्थान पत्रिका में धारावाहिक रूप से प्रस्तुत चित्रकथा 'पृथ्वी-तारा' के माध्यम से भी उनके बारे में जाना। आज आल्हा छंद में आपकी रचना पढ़कर मन आह्लादित हो गया। नमन है आपकी असाधारण लेखनी को, आपकी असाधारण प्रतिभा को।

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  3. बेहतरीन प्रस्तुति

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  4. वाह! अनुपम अद्वितीय।

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  5. बहुत ही सुंदर रचना आल्हा छंद मे

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