चंदन मस्तक पर लगा,बनते हैं जो संत।
भक्ति मर्म जाने नहीं,दुर्गुण बसे अनंत।
दुर्गुण बसे अनंत,बनें वे लोभी -कामी।
रचते बड़े प्रपंच,भले हों कितने नामी।
कहती'अभि'निज बात,करो क्यों इनका वंदन।
कुत्सित सदा विचार,ढोंग माथे का चंदन।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक
भक्ति मर्म जाने नहीं,दुर्गुण बसे अनंत।
दुर्गुण बसे अनंत,बनें वे लोभी -कामी।
रचते बड़े प्रपंच,भले हों कितने नामी।
कहती'अभि'निज बात,करो क्यों इनका वंदन।
कुत्सित सदा विचार,ढोंग माथे का चंदन।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक
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