Friday, July 31, 2020

कुंडलियां-वेणी, कुमकुम

वेणी

वेणी गजरे से सजी, चंचल सी मुस्कान।
कान्हा के उर में बसी,गोकुल की है शान।
गोकुल की है शान,सभी के मन को मोहे।
जैसे हीरक हार,रूप राधा का सोहे।
कहती 'अभि' निज बात,प्रेम की बहे त्रिवेणी।
दीप शिखा सी देह ,सजा के सुंदर वेणी।

कुमकुम

कुमकुम जैसी लालिमा,बिखरी है चहुँ ओर।
जग जीवन चंचल हुआ,हुई सुनहरी भोर।
हुई सुनहरी भोर,सजे हैं बाग बगीचे।
जाग उठे खग वृंद,कौन अब आंखें मीचे।
कहती 'अभि' निज बात,रहो मत अब तुम गुमसुम।
सुखद नवेली भोर ,धरा पर बिखरा कुमकुम।

काजल

भोली सी वह नायिका,चंचल उसके नैन।
आनन पंकज सा लगे,छीने दिल का चैन।
छीने दिल का चैन,आंख में काजल डाले।
मीठे उसके बोल, हुए सब हैं मतवाले।
कहती 'अभि' निज बात,चढ़ी है जब वह डोली।
भीगे सबके नैन,चली जब पथ पे भोली।

   *गजरा*

चंचल चपला सी लली,खोले अपने केश।
मुख चंदा सा सोहता,सुंदर उसका वेश।
सुंदर उसका वेश,चली वो लेकर गजरा।
देखा उसका रूप,आंख से दिल में उतरा।
कहती अभि निज बात,मचा है हिय में दंगल।
देख सलोना रूप,प्रेम में तन-मन चंचल।

*बिंदी*
सजना तेरे नाम की,बिंदी मेरे भाल।
सबको पीछे छोड़ के,साथ चली हर हाल।
साथ चली हर हाल,किया था मैंने वादा।
तुझसे मांगा प्रेम, नहीं कुछ मांगा ज्यादा।
मेरी सुन लो बात, सदा मेरे ही रहना।
जीवन के श्रृंगार,सुनो ऐ मेरे सजना।


लुटता सब श्रृंगार है,पिया नहीं जो साथ।
माथे से बिंदी हटे,चूड़ी टूटी हाथ।
चूड़ी टूटी हाथ,मांग सूनी हो जाती।
नयनों बहता नीर,याद जब उसको आती।
कहती 'अभि'निज बात,देख के दिल है दुखता।
सधवा का श्रृंगार,सुखों का सागर लुटता।

*डोली*

डोली फूलों से सजी,लेकर चले कहार।
कैसी आई ये घड़ी,छूटा घर-संसार।
छूटा घर-संसार,बही आंसू की धारा।
टूटा मन का बांध,कौन दे किसे सहारा।
कहती 'अभि' निज बात,नहीं फिर निकली बोली।
देखें बस चुपचाप,चली जब घर से डोली।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक



4 comments:

  1. सहृदय आभार आदरणीया दीदी 🙏🌹

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  2. एक-से-एक सुंदर रचनाएं ! भावभीनी ! मनमोहिनी ! हृदयस्पर्शी ! आपकी काव्य-प्रतिभा को देखकर स्तब्ध हूँ ।

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    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏🌹

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