Thursday, August 13, 2020

जीवन सार


मानव जीवन के लिए, नैतिक मूल्य महान।
जीवन उत्तम हो सदा, दूर रहे अज्ञान।
दूर रहे अज्ञान,सत्य पथ बन अनुगामी।
दया,क्षमा अरु प्रेम,बनो करुणा के स्वामी।
कहती 'अभि' निज बात,कर्म करना है आनव।
पालन नैतिक मूल्य, बनोगे सच्चे मानव।
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गागर जल से है भरी,छलके प्रेम अपार।
जब तक जल से है भरी,तब तक ही संसार।
तब तक ही संसार,रखो हिय गागर जैसा।
बूँद-बूँद उपयोग,समय कब आए कैसा।
कहती'अभि' निज बात,जीव का तन है आगर।
जल संग मिलता जल,फूटती जब है गागर।

गागर-तन,घड़ा
जल-प्राण,जल
बूंद-जल की बूँद,पल।
जल-प्राण-परमात्मा।
आगर-घर ,निवासस्थान
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आधा जीवन खो दिया,किया कहाँ कुछ काम।
मन अस्थिर चंचल रहा,लिया न प्रभु का नाम।
लिया न प्रभु का नाम,काम में ऐसा उलझा।
जैसे जाल कुरंग,उलझ के फिर कब सुलझा।
कहती'अभि'निज बात,दिखें बाधा ही बाधा।
जपलो प्रभु का नाम ,बचा ये जीवन आधा।

काम-कर्म
काम-काम वासना
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नश्वर इस संसार में,यात्रा करता जीव।
रमता तनगृह में सदा, छोड़े तो निर्जीव।
छोड़े तो निर्जीव,पथिक नित चलता जाता।
अमर अछेद अभेद,आग में जल न पाता।
कहती'अभि'निज बात,जीव में बसता ईश्वर।
करो सदा सत्कर्म,मिटेगा तन ये नश्वर।
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मेला ये संसार है,मिलते कितने लोग।
कुछ चलते हैं साथ में,बनता ऐसा योग।
बनता ऐसा योग,लगें अपनों से ज्यादा।
संकट में दें साथ, निभाते हैं हर वादा।
कहती'अभि'निज बात,मनुज कब रहा अकेला।
जाता खाली हाथ,छोड़ दुनिया का मेला।
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अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

Monday, August 10, 2020

यशुमति का लाल

 नटखट अठखेली करे,देखें गोपी ग्वाल।

माखन मिश्री मुँह लगी,यशुमति का है लाल।


यशुमति का है लाल,बना वो सबका प्यारा।


मोर मुकुट है भाल,बदन पीतांबर न्यारा।


कहती'अभि'निज बात,तोड़ता मटकी झटपट।


बाल त्रिलोकीनाथ,करें नित लीला नटखट।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

स्वरचित मौलिक

Wednesday, August 5, 2020

ढोंग माथे का चंदन

चंदन मस्तक पर लगा,बनते हैं जो संत।
भक्ति मर्म जाने नहीं,दुर्गुण बसे अनंत।
दुर्गुण बसे अनंत,बनें वे लोभी -कामी।
रचते बड़े प्रपंच,भले हों कितने नामी।
कहती'अभि'निज बात,करो क्यों इनका वंदन।
कुत्सित सदा विचार,ढोंग माथे का चंदन।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

Monday, August 3, 2020

कुंडलियाँ

                ममता

ममता की समता नहीं,सब कुछ देती वार।
बस इसकी ही छाँव में,खुशियाँ मिलें अपार।
खुशियाँ मिले अपार,खिले बचपन फूलों सा।
अपना सब कुछ हार,चुने वह पथ शूलों सा।
करे नहीं छल-छंद,दिखाती है वह समता।
बनी चाँदनी तुल्य,चंद्र सी शीतल ममता।

               बाबुल

बिटिया बाबुल से कहे,मत भेजो ससुराल।
तेरी तो मैं लाड़ली,क्रूर कठिन है काल।
क्रूर कठिन है काल,कहे क्यों मुझे पराई।
कैसे लगती भार,तुझे अपनी ही जाई।
दो-दो हैं परिवार,कहाँ है मेरी कुटिया।
बदलो अब ये रीति,तभी मैं तेरी बिटिया।

              भैया

भैया तेरी याद में, मुझे न आए चैन।
आँखों में छवि घूमती,दिन हो चाहे रैन।
दिन हो चाहे रैन,बहे आँसू की धारा।
जैसे टूटे बाँध,टूटता नदी किनारा।
कैसे धर ले धीर,दूर जो हुआ खिवैया।
मात-पिता का चैन,बहन का प्यारा भैया।

              बहना

बहना बनकर बावरी,नाचे जैसे मोर।
भैया वर के रूप में,लगता नंदकिशोर।
लगता नंदकिशोर,चंद्र सा मुख है चमका।
पीत वसन हैं अंग, सूर्य ज्यों नभ पर दमका।
अधरों पर मुस्कान,शीश पगड़ी है पहना।
देती नजर उतार,लगाती काजल बहना।

           सखियाँ

सखियाँ झूला झूलती,  वृंदावन के बाग।
मनमंदिर में मीत का,बसा हुआ है राग।
बसा हुआ है राग,राग वे मधुर सुनाती।
ऐसे छेड़ें तान,लगे बुलबुल हैं गाती।
मदन करे श्रृंगार,देखती सबकी अखियाँ।
रति का लगती रूप,बाग में सारी सखियाँ।

राग-प्रेम,
राग-संगीत,गान(यमक)

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

Sunday, August 2, 2020

कविता

कविता कवि की कल्पना,हृदय भाव उद्गार।
रस की निर्झरणी बने,तेज धार तलवार।
तेज धार तलवार,समय की बदले धारा।
सूर्य किरण से तेज, कलुष तम हरती सारा।
कहती 'अभि' निज बात,क्रांति की बहती सरिता।
लेकर तीर-कमान,हाथ में चलती कविता।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

हाइकु शतक

 अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' 1) कचरा गड्ढा~ चीथड़े अधकाया नवजात की। 2) शीत लहर~ वस्त्रविहीन वृद्ध  फुटपाथ पे । 3) करवाचौथ- विधवा के नैनों से...